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आलोचनात्मक कृति ‘आलोचना के परिसर’ पर पुस्तक चर्चा का आयोजन हुआ. |
प्रवीण कुमार ने पूछा कि उन्होंने इस किताब का खाका कैसे तैयार किया? जबाव में प्रो. गोपेश्वर ने कहा कि उन दृष्टियों को रेखांकित किया जाना चाहिए जो समाज को आगे ले जाने में सक्रिय हैं। इस कृति में किसी एक दृष्टि का ही बखान नहीं है, समाज की सम्पूर्ण विचारधारा झलकती है। ऐसी मार्क्सवादी विचारधारा जो मार्क्ससंवाद से सम्बद्ध हो, उसमें विरोध न हो, अगर उसमें गति दी जाए तो उसे आगे बढ़ने में मार्क्सवाद का स्वागत किया जाएगा।
प्रो. गोपेश्वर सिंह ने कहा कि साहित्य की विधा केवल विश्वविद्यालय से नहीं बनती, वह जनआन्दोलनों से भी बनती है। उन्होंने वीरेन्द्र जैन के ‘डूब’ उपन्यास का उदाहरण देते हुए कहा कि आलोचना की पारम्परिक दृष्टि है, दृष्टि में बदलाव आये। आलोचना ऐसी हो जो बदलते दृष्टिकोण का परिचय दे।
उनहोंने आलोचना के बारे में दो बातें कहीं कि साहित्य की कोई आलोचना नहीं होती। वह तो जीवन से फूटता है। आलोचना के लिए पहले जीवन को पढ़ना पड़ता है।
~समय पत्रिका.