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‘राग पहाड़ी’ शाश्वत प्रेम, मिलन-बिछोह और अदम्य जिजीविषा की कहानी है. |
प्रोफ़ेसर पुष्पेश पन्त ने किताब के लोकार्पण पर बोलते हुए कहा कि इस उपन्यास में पहाड़ के सारे ताने-बाने हैं जो पहाड़ को पूरे देश से जोड़ती है। इसमें प्रकति के बदलते चित्र, संगीत, जीवन और पहाड़ की खुशबू निहित है। प्रो. पन्त ने कहा,''पुस्तक का अनुवाद करना मेरे लिए गौरव के बात थी क्योंकि मैं इन्हीं पहाड़ों में पला–बड़ा हूँ और पहाड़ों से परचित हूँ।”
लेखिका नमिता गोखले ने कहा कि चित्रकारी के रंग और संगीत के स्वर एक अद्भुत संसार की रचना करते हैं जहाँ मिथक–पुराण, एतिहासिक–वास्तविक और काल्पनिक तथा फतांसी में अंतर करना असंभव हो जाता है। यह कहानी शाश्वत प्रेम, मिलन-बिछोह और अदम्य जिजीविषा की है।
'राग पहाड़ी' का देशकाल, कथा–संसार उन्नीसवीं सदी के मध्य से लेकर बीसवीं सदी से पहले का कुमाऊं है। कहानी शुरू होती है लाल–काले कपड़े पहने ताल के चक्कर काटती छह रहस्यमय महिलाओं की छवि से जो किसी भयंकर दुर्भाग्य का पूर्वाभास कराती हैं। इन प्रेतात्माओं ने यह तय कर रखा है कि वह नैनीताल के पवित्र ताल को फिरंगी अंग्रेजों के प्रदूषण से मुक्त कराने की चेतवानी दे रही हैं।
इस अवसर पर रंगकर्मी, केन्द्रीय फिल्म प्रमाणन बोर्ड की सदस्य वाणी त्रिपाठी टिक्कू ने कुमाऊं का मशहूर लोकगीत ‘बेडू पाको बारा मासां’ गाया और किताब पर बोलते हुए कहा,''मेरे लिए यह किताब पहाड़ का चित्रपट है।”
~समय पत्रिका.