स्त्री विमर्श के पहलुओं पर परिचर्चा का आयोजन

विश्व पुस्तक मेले में वाणी प्रकाशन
समकालीन साहित्य में स्त्री चिन्तन ने अनेक नये आयाम विश्व स्तर पर प्राप्त किये हैं.
विश्व पुस्तक मेले में वाणी प्रकाशन के स्टॉल पर '21वीं सदी में स्त्री का आकाश' और 'स्त्री आज़ादी की चुनौतियाँ और मीडिया' पर विशेष परिचर्चा का आयोजन किया गया। इन सत्रों के प्रतिभागी थे वरिष्ठ लेखिका ममता कालिया, चर्चित कथाकार गीताश्री, प्रसिद्ध कवयित्री अनामिका, वरिष्ठ पत्रकार जयंती रंगनाथन और युवा लेखिका ज्योति चावला।

समकालीन साहित्य में स्त्री चिन्तन ने अनेक नये आयाम विश्व स्तर पर प्राप्त किये हैं। यह विमर्श मात्र न होकर विचार-विमर्श में रूपान्तरित हो गया है।

वरिष्ठ कथाकार ममता कालिया ने कहा कि स्त्री विमर्श को कई लेखकों ने दर्जी की तरह रेडी-मेड बना दिया। आज के समाज में सबसे सुखद ये हुआ है कि स्त्री ने इस विमर्श को पहचाना और उसपर लिखना प्रारम्भ किया।

गीताश्री

'साहित्य में स्त्री का समय' पर गीताश्री कहती हैं कि मेरी पीढ़ी नयी नैतिकता से टकराती है, पुरानी नैतिकता को छोड़ती है, मनुष्य का अपनी देह के साथ सहज सम्बन्ध में स्त्रियों ने अपने सत्य को पहचाना। उन्होंने आगे कहा कि स्त्रियों में यह भय कि वह धर्म पर नहीं बोलतीं। इसमें धीरे-धीरे बदलाव हो रहा है। पितृसत्ता समाज के सन्दर्भ में वे कहती हैं कि कोई मकान स्त्री के नाम कर दो। स्त्री की आधुनिकता उनसे ही जुड़ी है।

कवयित्री अनामिका ने स्त्री विमर्श पर नवीन सन्दर्भ जोड़े। उन्होंने राहुल सांकृत्यायन की पंक्ति उद्धृत की -'अँगना  तो विदेश भयो'। स्त्री की यह स्थिति समय के साथ धीरे-धीरे टूटी है। सभी विधाओं का स्वरूप बदला है। उन्होंने कहा कि लगातार पेड़ लगाते रहिये, जलवायु जरूर बदलेगी।

जयंती रंगनाथन

जयंती रंगनाथन ने अपनी अम्मा का उदाहरण देते हुए तीन बातें स्त्री विमर्श को उजागर करते हुए कहीं। उन्होंने कहा कि विवाह के कारण अपनी पढ़ाई मत छोड़, दूसरी, तुम्हें जो चाहिए उसकी राह खुद बनानी होगी। तीसरी, एक लड़की 20 मिनट से अधिक रसोईघर में न रुके क्योंकि ऐसी स्त्री अपने बारे में नहीं सोच सकती। इस उदाहरण को उन्होंने अपने जीवन में उतारा और उन्होंने कहा कि ऐसे ही मैंने ये सब पाया। अन्त में जयंती ने कहा कि आज एक मध्यवर्ग की लड़की भी ये सोचने लगी है यदि उसके घर की खिड़की टूटी है तो वो ये सपना देखती है कि सबसे पहले मैं कमा कर ऐसा घर खरीदूँगी जिसमें खिड़की हो। इन बातों में विमर्श के साथ ही बदलाव की झलक भी देखने को मिलती है।

ज्योति चावला ने समाज के बदलते हुए सकारात्मक पक्ष सामने रखे जिनके लिए उन्होंने फिल्म व विज्ञापन का उदाहरण दिया। उन्होंने कहा कि मुझे आजकल की फिल्मों में ये सबसे अच्छा लगता है कि ज्यादातर अन्त में पिता बेटी से कहता है कि 'तुम जो करना चाहती हो वही करो।' एक स्कूटी के विज्ञापन की पंक्ति 'अब पीछे क्या बैठना' इन सभी बातों में स्त्री विमर्श की स्वतन्त्र झलक देखने को मिलती है।

~समय पत्रिका.