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श्रृंखला की पहली कड़ी में वक्ताओं ने अपने महत्वपूर्ण विचार रखे. |
चर्चित लेखक प्रवीण कुमार ने कहा कि स्त्री विमर्श उत्तर आधुनिकता का छत्तीस का आंकड़ा है। उत्तर आधुनिकता अपने बहुआयामी विमर्श में महिलाओं का महिलाओं पर ही टिप्पणी करना स्त्री विमर्श नहीं मानता। उत्तर आधुनिकता नये ढंग से स्त्री-विमर्श को परिभाषित करता है और बाकी विमर्शों को स्पेस देने की बात करता है।
वहीं उमाशंकर चौधरी ने अपने विचार रखते हुए कहा कि वह बड़े-बड़े “वादों” यानि विचारधाराओं को बहकाने की बातें मानते हैं। सूक्ष्म स्तर पर भारतीय परिवारों में भेदभाव जिसमें स्त्री को पुरुष जितने मौके नहीं मिलते। इसके बावजूद पुरुष बदल रहा है और स्त्री की खुशी में आपनी खुशी ढूंढ रहा है। यही प्रेम कि नीव भी है।
रजत रानी 'मीनू' ने कहा कि दलित तो आधुनिक ही नहीं हुआ। वह अभी अन्तिम पायदान पर है। डॉ. अम्बेडकर का कहना था स्त्री शिक्षा से ही स्वाबलंबी बनेगी। श्रमिक महिलाएँ आज भी उसी पिछड़ी स्थिति में हैं। दलित पर्वों का मध्यम वर्गीय महिलाओं को भी यह पता नहीं कि 8 मार्च या महिला दिवस क्या है। हिन्दू कोड बिल आज भी लागू नहीं। उत्तर आधुनिकता कहाँ है जब स्त्री अब भी अस्तित्व में नहीं है, आधुनिक ही नहीं है।
नीलिमा चौहान ने कहा कि फेमिनिज्म़ शब्द को नकार कर हमारे विमर्श भटक सकते हैं। डिस्कोर्स से बच रहे लेखक परिपक्व नहीं हैं।
इस अवसर पर साक्षी सुदीप सेन अपने विचार रखे। उन्होंने 'मीटू' आंदोलन के एक तरफ़ा होने पर अपनी राय रखी। हावर्ड यूनिवर्सिटी के दक्षिण एशिया सेंटर के अध्यक्ष संजय सिंह ने कहा कि गाँव, देहात में स्त्रियों ने एकजुट हो बड़े आंदोलन सार्थक किए हैं। इस अवसर पर श्यौराज सिंह बेचैन, गीताश्री, अजय सिंह, विजय श्री तनवीर, अरूण माहेश्वरी, अदिति माहेश्वरी-गोयल कार्यक्रम में उपस्थित थे।
कार्यक्रम का संचालन वाणी प्रकाशन की संपादकीय से रश्मि भारद्वाज ने किया।