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शिक्षा श्रृंखला के दूसरे पड़ाव का ग्यारहवा व्याख्यान पूर्व आचार्य, हिन्दी विभाग, काशी हिन्दू विश्वविद्यालय, वाराणसी के प्रोफ़ेसर अवधेश प्रधान ने ‘हिन्दी साहित्य के इतिहास की जनपदीय भूमिका’ पर दिया और बारहवें व्याख्यान में पूर्व आचार्य, हिन्दी विभाग, विज्ञान व प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय, कोच्ची, केरल की प्रोफ़ेसर के. वनजा ने ‘इकोफ़ेमिनिज़्म’ विषय पर अपने विचार प्रस्तुत किए।
ग्यारहवें व्याख्यान का विषय ‘हिन्दी साहित्य के इतिहास की जनपदीय भूमिका’ पर केन्द्रित रहा। इस विषय पर व्याख्यान दिया कवि, आलोचक और चिन्तक अवधेश प्रधान ने। अवधेश जी ने हिन्दी साहित्य के इतिहास लेखन में जनपदीय की अध्ययन की भूमिका को रेखांकित करते हुए कहा कि मुख्यधारा के साहित्य और भाषा के साथ हिन्दी साहित्य में जनपदीय अध्ययन और जनपदीय चेतना पर भी बृहद शोध कार्य हुआ है। ज़रूरत है उसे नये सिरे से देखने की। रामनरेश त्रिपाठी, मिश्र बन्धु, आचार्य रामचन्द्र शुक्ल के यहाँ इसके सूत्र देखे जा सकते हैं, जबकि राहुल सांकृत्यायन और वासुदेव शरण अग्रवाल ने जनपदीय अध्ययन की विशद रूपरेखा प्रस्तुत की। वासुदेव शरण अग्रवाल भूमि, जन और जन द्वारा निर्मित संस्कृति से जनपदीय अध्ययन के दार्शनिक आधार को खोजते हैं। इस अध्ययन में वृक्ष, वनस्पति, चित्र और सांस्कृतिक अवयव के अध्ययन से जनपदीय दृष्टि को नयी दिशा दी जा सकती।
उन्होंने राहुल सांकृत्यायन ने जनपदीय अध्ययन में गयी लोक भाषाओं को लेकर विस्तार से उनकी शैलियों पर प्रकाश डाला। जनपदीय अध्ययन में प्रारम्भिक शिक्षा लोक भाषाओं में देने की बात की गयी। तो उच्च शिक्षा हिन्दी में जनपदीय चेतना का एक रूप प्रगतिशील हिन्दी कविता में देखा जा सकता है। जहाँ कवि अपने उपनामों के साथ लोक भाषाओं में कविता रचते थे। नागार्जुन यात्री नाम से रामविलास शर्मा ‘अगिया बेताल’ नाम से कविताएँ लिखते थे। जनपदीय चेतना और लोक साहित्य के अन्त: सम्बन्ध को लेकर आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने नये दृष्टिकोण से अध्ययन किया। हिन्दी साहित्य के इतिहास में अमीर खुसरो से लेकर आधुनिक कविता तक लोक मुहावरों और काव्य रूपों का अध्ययन करना जनपदीय चेतना का ही स्रोत है। लोकगीतों में बच्चन जी, ठाकुर प्रसाद सिंह, केदारनाथ सिंह ने जनपदीय भाषा की भूमि तैयार की। इस तरह इस विषय पर नये दृष्टिकोण से शोध करना और अध्ययन करना हिन्दी साहित्य के इतिहास को नई दृष्टि प्रदान करेगा।
बारहवें व्याख्यान का विषय 'इकोफ़ेमिनिज़्म' था। इस विषय पर व्याख्यान दिया स्त्रीवादी समीक्षक और आलोचक के.वनजा ने। इकोफ़ेमिनिज़्म अर्थात पितृवादी और पूँजीवादी शोषण व्यवस्था का प्रतिरोध, प्रकृति के साथ और उसके अवयव के साथ स्त्री का साहचर्य जीवन। इकोफ़ेमिनिज़्म के आध्यात्मिक और भौतिक दोनों रूप देखे जा सकते हैं। पश्चिम के चिन्तन में इसका व्यापकता से विवेचन किया गया लेकिन भारतीय चेतना में बौद्ध दर्शन से लेकर हमारी मिथकीय चेतना में इसके स्वरूप की पड़ताल की जा सकती है। मनुष्य को प्रकृति के साथ मिलकर, उसके साथ तालमेल बिठाकर जीवन संस्कृति का विकास करना चाहिए। यही इस दृष्टि की विशेषता है। पुरुषवादी और पूँजीवादी समाज ने स्त्री और प्रकृति को अपने अधीन रखने की लगातार कोशिश की है।
उन्होंने कहा कि उपभोक्तावादी संस्कृति ने स्त्री और प्रकृति को सबसे अधिक नुक़सान पहुँचाया। यह चिन्तन इसका प्रतिरोध करता है। हिन्दी में जयशंकर प्रसाद की कृति ‘कामायनी’ की इकोफ़ेमिनिज़्म की दृष्टि से व्याख्या की जा सकती है। जिसमें श्रद्धा प्रकृति और मनुष्य के साथ संस्कृति के निर्माण की बात करती है। महादेवी वर्मा के लेखन में प्रकृति का स्त्री और जीव-जन्तुओं के साथ ख़ूबसूरत रिश्ता दिखाया गया है। समकालीन कवियों में चन्द्रकान्त देवताले और एकान्त श्रीवास्तव की कविता में इस दृष्टि को देखा जा सकता है। निर्मला पुतुल की कविता में आदिवासी स्त्री और प्रकृति का ख़ूबसूरत रूप है। उपन्यासों में ‘कठगुलाब’ और ‘धार’ जैसे उपन्यास इसके उदाहरण हैं। नाटक में जगदीश चन्द्र माथुर का ‘पहला राजा’ इकोफ़ेमिनिज़्म की दृष्टि से एक प्रमुख नाटक है। इस तरह इकोफ़ेमिनिज़्म स्त्रीवादी चेतना की एक व्यापक संवेदनशील और स्त्री और प्रकृति की पारिस्थितिकी की ख़ूबसूरत अवधारणा है।