
वाणी डिजिटल शिक्षा शृंखला में समीक्षक मनोज कुमार सिंह और सन्तोष भदौरिया ने अपने विचार रखे.
वाणी डिजिटल : शिक्षा शृंखला और प्रभाकर सिंह, बीएचयू वाराणसी की ओर से आयोजित ‘हिन्दी साहित्य का इतिहास : अध्ययन की नयी दृष्टि, विचारधारा और विमर्श’ का दूसरा पड़ाव के 16 दिवसीय व्याख्यानमाला में नौवाँ व्याख्यान काशी हिन्दू विश्वविद्यालय, वाराणसी के अध्यापक मनोज कुमार सिंह ने ‘हिन्दी साहित्य और बौद्ध विचार परम्परा’ पर दिया और दसवाँ व्याख्यान इलाहाबाद विश्वविद्यालय, प्रयागराज के अध्यापक सन्तोष भदौरिया ने ‘हिन्दी-उर्दू की साझा विरासत’ अपने विचार दिये।
नौवाँ व्याख्यान करते हुए ‘हिन्दी साहित्य और बौद्ध विचार परम्परा’ समीक्षक और सुप्रसिद्ध वक्ता मनोज कुमार सिंह ने महात्मा बुद्ध को दुनिया का पहला संवादी शिक्षक बताया। जिन्होंने वर्णाश्रम व्यवस्था को प्रश्नांकित किया और धर्म में नैतिकता की चेतना को विकसित करने वाले, पुस्तक को प्रमाण ना मानने वाले, जीवन से सच को ग्रहण करने वाले, जीवन में व्याप्त दुख की संरचना को समझने की पहली बौद्धिक कोशिश बुद्ध ने हिन्दी समाज में की। हिन्दी साहित्य और समाज में आठवीं शताब्दी की सिद्ध कविता और भक्तिकाल में निर्गुण कविता का बौद्ध विचार परम्परा से गहरा रिश्ता है। लेकिन आधुनिक काल में हिन्दी नवजागरण का बौद्ध साहित्य के साथ वैसा रिश्ता नहीं बन पाता। वैसे आचार्य शुक्ल, रामविलास शर्मा ने बौद्ध दर्शन और विचार पर लिखा तो है लेकिन उसका सार्थक विवेचन इनके यहाँ नहीं मिलता। हिन्दी साहित्य में राहुल सांकृत्यायन ने बौद्ध विचार परम्परा से गहरा रिश्ता कायम किया। भारतीय नवजागरण में बौद्ध विचार को विकसित और विवेचित करने वाले विचारकों में बाबा साहब भीमराव अम्बेडकर का नाम अग्रणी है। बुद्ध, जीसस, कृष्ण और मोहम्मद के बीच बुद्ध को सबसे बड़ा विचारक, चिन्तक और दुनिया के पहले शिक्षक के रूप में याद करते हैं। हिन्दी साहित्य में कविता और कथा साहित्य में बौद्ध जीवन या बुद्ध के जीवन चरित्र को तो लिया गया है लेकिन बुद्ध के विचारों के साथ हिन्दी समाज में जैसा रिश्ता कायम करना चाहिए वैसा नहीं किया है। यह बात विचार योग्य है।
दसवाँ व्याख्यान सुपरिचित आलोचक सन्तोष भदौरिया ने ‘हिन्दी-उर्दू की साझा विरासत’ पर दिया। साझा विरासत की व्यापक अवधारणा पर बातचीत करते हुए उन्होंने उसकी समृद्ध परम्परा को तथ्यपरक तरीके से विवेचित किया। हमने विदेशी धर्मों की उपेक्षा, आज़ादी के मूल्यों की अनदेखी और साम्प्रदायिक संकीर्णता के चलते साझा विरासत की ताक़त को कमज़ोर किया है। साहित्य में अमीर खुसरो से लेकर कबीर, तुलसी रसखान, घनानन्द, सौदा, नज़ीर अकबराबादी, ग़ालिब, भारतेन्दु, निराला, प्रेमचन्द से होते हुए हरिवंश राय बच्चन और केदारनाथ सिंह, शमशेर, दुष्यन्त की रचनाओं में इस साझी विरासत को देखा जा सकता है। सूफ़ी कविता की समृद्ध विरासत इसके अलावा वली दखनी के साहित्य में इस विरासत की मज़बूती को देखा जा सकता है। औपनिवेशिक युग में फोर्ट विलियम कॉलेज की स्थापना के साथ हिन्दी-उर्दू भाषा के बहाने हिन्दू और मुसलमान में फूट डालने की साज़िश हुई और यह विभाजन औपनिवेशिक युग की देन है। यो स्वाधीनता आन्दोलन में अट्ठारह सौ सत्तावन का महासंग्राम हिन्दी-उर्दू की साझा विरासत का सबसे प्रामाणिक दस्तावेज़ है। मध्यकाल में मुग़ल बादशाहों का हिन्दी प्रेम साहित्य में दर्ज है। कविता के साथ कथा साहित्य में इस साझी विरासत को बख़ूबी देखा जा सकता है। 90 के बाद का दौर उपभोक्तावाद, बाज़ारवाद और वैश्वीकरण की संस्कृति ने साझी विरासत को और अधिक नुकसान पहुँचाया है। साहित्य और कलाएँ हमें राजनीति और धर्म की संकीर्ण चेतना से उबारने में मदद करती हैं हमें भारत की साझा संस्कृति के साथ जीने की कला सिखाती हैं और यही हमारी ताक़त है।