
"आदिवासी साहित्य में शोध करते समय आधार साहित्य को ठीक से समझने की ज़रूरत है."
वाणी डिजिटल : शिक्षा शृंखला और प्रभाकर सिंह, बीएचयू वाराणसी की ओर से आयोजित ‘हिन्दी साहित्य का इतिहास : अध्ययन की नयी दृष्टि, विचारधारा और विमर्श’ का दूसरा पड़ाव के 16 दिवसीय व्याख्यानमाला में पाँचवाँ व्याख्यान ‘अम्बेडकरवाद और हिन्दी दलित साहित्य’ और छठा व्याख्यान 'आदिवासी विमर्श और हिन्दी साहित्य' पर आयोजित हुआ।
युवा समीक्षक और दलित विचारक राजेश पासवान ने ‘अम्बेडकरवाद और हिन्दी दलित साहित्य’ विषय पर व्याख्यान देते हुए अम्बेडकरवाद के वैचारिक और सृजनात्मक स्वरूप का दलित साहित्य पर किस रूप में प्रभाव पड़ा इसकी गहन पड़ताल की। उन्होंने कहा कि बाबासाहेब अम्बेडकर का यह नारा 'शिक्षित बनो, संगठित रहो, संघर्ष करो' दलित साहित्य का मूल मन्त्र है। हिन्दी दलित साहित्य में प्रसिद्ध ‘जूठन’ आत्मकथा में ओमप्रकाश वाल्मीकि शिक्षा से स्वाभिमान प्राप्ति की बात करते हैं। दलित साहित्य आदर्शवादी साहित्य नहीं है। उसमें आक्रोश, वेदना और करुणा है। वह जीवन सन्दर्भों से जुड़ा हुआ ईमानदार साहित्य है। दलित साहित्य में श्यौराज सिंह बेचैन, धर्मवीर, ओमप्रकाश वाल्मीकि, तुलसीराम के साथ नयी युवा सृजनशीलता इस साहित्य को विकसित कर रही है। दलित साहित्य ने साहित्य को देखने का अपना एक सौन्दर्यशास्त्र भी निर्मित किया है क्योंकि जीवन को देखने और रचने का हमारा अपना नज़रिया होना चाहिए न कि दूसरे का । भूमंडलीकरण के दौर ने एक ओर कई समस्याएं दी हैं तो इसने जाति व्यवस्था और तमाम सारी संस्थाओं को तोड़ा भी है। दलित साहित्य की रचनात्मकता का इस नये उदारीकरण से एक सकारात्मक रिश्ता भी बना है। दलित साहित्य ने साहित्य सृजन के नये स्वरूप को विकसित किया है और उसे लोकतन्त्रिक बनाया है।
छठा व्याख्यान 'आदिवासी विमर्श और हिन्दी साहित्य' पर केन्द्रित रहा। इस विषय पर युवा आलोचक और आदिवासी साहित्य के मर्मज्ञ गंगा सहाय मीणा ने अपने विचार रखते हुए कई नये दृष्टिकोणों के साथ आदिवासी साहित्य और चिन्तन को विवेचित किया। आदिवासी साहित्य को उन्होंने पुरखा साहित्य कहा। इस साहित्य का पहला स्रोत मौखिक परम्परा में मिलता है। दूसरा स्रोत अनुवाद और उस साहित्य में मिलता है जिसको ख़ुद अपनी मातृभाषा के साथ दूसरी भाषाओं में आदिवासी रचनाकारों ने लिखा है। तीसरा स्रोत समकालीन लेखन में है जिसमें गैर-आदिवासी भाषाओं मसलन हिन्दी, तमिल, मराठी में जो साहित्य लिखा गया। आदिवासी साहित्य में आदिवासी दर्शन हो यह ज़रूरी बात नहीं है। समकालीन हिन्दी या अन्य साहित्य में आदिवासी जीवन के बारे में लिखा तो गया है लेकिन सभी में आदिवासी दर्शन नहीं है। आदिवासी साहित्य में आदिवासी दर्शन को निम्न रूपों में तलाशा जा सकता है- जैसे आदिवासी दर्शन या आदिवासी संस्कृति में प्रकृति और पुरुषों के प्रति सम्मान भाव, सामूहिकता और पूँजीवादी भूमंडलीकरण का प्रतिरोध दर्ज किया जाता है। इन दिनों आदिवासी साहित्य लिखने वाले बहुत सारे साहित्यकारों के साथ जो प्रमुख पुराने साहित्यकार हैं उनमें सुशीला सामन्त, एलिस, रामदयाल मुंडा और पीटर पाल महत्त्वपूर्ण हैं। आदिवासी साहित्य में शोध करते समय आधार साहित्य को ठीक से समझने की ज़रूरत है तभी हम आदिवासी साहित्य को विकसित कर सकते हैं।