वाणी डिजिटल शिक्षा शृंखला : "काव्य तथा कलाएँ हमें संस्कारित करती हैं"

vani-digital-education

समीक्षक-आलोचक प्रोफ़ेसर राधावल्लभ त्रिपाठी और  रोहिणी अग्रवाल ने विचार व्यक्त किए. 

वाणी डिजिटल की शिक्षा शृंखला और प्रभाकर सिंह, बीएचयू वाराणसी की ओर से आयोजित ‘हिन्दी साहित्य का इतिहास : अध्ययन की नयी दृष्टि, विचारधारा और विमर्श’ का दूसरा पड़ाव के 16 दिवसीय व्याख्यानमाला में सातवाँ व्याख्यान ‘स्त्री-विमर्श और स्त्री-लेखन’ और आठवाँ व्याख्यान ‘भारतीय काव्यशास्त्र- एक विहंगम दृष्टि’ पर आयोजित हुआ।

सातवें  व्याख्यान में सुपरिचित स्त्रीवादी समीक्षक और आलोचक रोहिणी अग्रवाल ने स्त्री विमर्श और स्त्री लेखन पर कई महत्वपूर्ण बातें कीं। उन्होंने कहा स्त्री विमर्श वाद-विवाद नहीं संवाद है। यह पितृसत्तात्मक व्यवस्था का पुनरीक्षण करता है। स्त्री विमर्श गायनी वार्ड नहीं है। यह परिवार विवाह, धर्म, न्याय, व्यवस्था, मीडिया के आलोक में स्त्री-पुरुष के संवाद और साथ ही मनुष्यता की पड़ताल है। पश्चिम का स्त्री विमर्श जिस तरह से विकसित होता है उसी के समानांतर भारतीय स्त्रीवादी विमर्श का भी विकास होता है। भारतीय स्त्री विमर्श में अट्ठारह सौ पचास में सावित्रीबाई फुले और उसके बाद 1970 में नये स्त्री अधिकारों के साथ एक नयी चेतना आती है फिर 1990 के बाद का दौर स्त्री विमर्श का एक नया उन्मुक्त और व्यापक दौर है। हिंदी के स्त्री विमर्श पर बातचीत करते हुए और उसके स्त्री लेखन के बारे में रोहिणी ने कहा की स्त्रीवादी लेखन में उसी दौर में लिखी गयी पुरुष रचनाएँ जिनमें स्त्री चेतना को दर्ज़ किया गया है उनको सामने रखकर पाठ करने से हमारे सामने नये निष्कर्ष आयेंगे। सीमंतिणी उपदेश और भाग्यवती, भारतेन्दु हरिश्चंद्र के लेखन और मल्लिका देवी के लेखन, प्रेमचन्द के स्त्री सम्बन्धी लेखन और शिवरानी देवी के लेखन को एक-दूसरे के सामने रखकर पढ़ने की वकालत उन्होंने की। आधुनिक स्त्रीवादी लेखन में महादेवी वर्मा, सुभद्रा कुमारी चौहान का स्वर सबसे मुखर है। दूसरा पड़ाव मन्नू भण्डारी, उषा प्रियंवदा और ममता कालिया के यहाँ दिखाई देता है तो तीसरे पड़ाव में मृदुला गर्ग ,चन्द्रकान्ता अलका सरावगी, मैत्रेई पुष्पा जैसी रचनाकारों ने स्त्री जीवन को नए परिवेश में सृजित किया। 90 के बाद का लेखन स्त्री अस्मिता के सवाल को बड़े सरोकारों के साथ उठाता है। यों स्त्री विमर्श सिर्फ़ स्त्री अस्मिता का विमर्श ना बन जाये इसलिए इसमें व्यापक सामाजिक-राजनीतिक और सांस्कृतिक चेतना की उपस्थिति का होना भी उतना ही ज़रूरी है।

आठवाँ व्याख्यान का विषय ‘भारतीय काव्यशास्त्र- एक विहंगम दृष्टि’ पर केन्द्रित रहा। इस विषय पर संस्कृत के विद्वान एवं वरिष्ठ आलोचक और चिन्तक प्रोफ़ेसर राधावल्लभ त्रिपाठी ने भारतीय काव्यशास्त्र की समृद्ध परम्परा का विवेचन करते हुए कहा कि भारतीय काव्य चिन्तन परम्परा भारतीय जीवन से बहुत गहरे जुड़ी हुई  है। काव्य तथा कलाएँ हमें संस्कारित करती हैं और हमें चेतना सम्पन्न बनाती हैं। काव्य चिन्तन का त्रिभुज कविता, कवि और सहृदय से मिलकर बनता है। भारतीय काव्यशास्त्र के प्रस्थान बिन्दु पर बात करते हुए राधावल्लभ त्रिपाठी ने कहा कि भारतीय काव्यशास्त्र के प्रमुख छह सिद्धान्त हैं वह आपस में एक-दूसरे से गहरे जुड़े हुए हैं। सबसे प्राचीनतम सिद्धान्त के रूप में उन्होंने अलंकार सिद्धान्त की और बात की रीति, वक्रोक्ति, रस, ध्वनि पर विशद चर्चा की।

उन्होंने रस, ध्वनि सिद्धान्त को सर्वोपरि सिद्धान्त और चिन्तन को उपनिवेशवादी दृष्टि बताया। असल में रस, ध्वनि, अलंकार, रीति, वक्रोक्ति की चारुता को एक-दूसरे के साथ जोड़कर देखा जाना चाहिए। भारतीय काव्य चिन्तन की परम्परा में बहुत कुछ ऐसा है जो उत्तर आधुनिकता के दौर में साहित्य की जो वैश्विक चुनौतियाँ हैं उनका मुक़ाबला कर सकता है । हिन्दी समीक्षा में काव्य चिन्तन की परम्परा में आचार्य शुक्ल और मुक्तिबोध ने कई मौलिक स्थापना दी  है। कुन्तक के सिद्धान्त में आधुनिक  संरचनावादी काव्यशास्त्र की मीमांसा की जा सकती। इस तरह भारतीय काव्यशास्त्र  का यह चिन्तन रूप  कविता की उदात्त चेतना को सुन्दर और गहरा बनाता है।