कोरोना काल के दौरान बहुत कुछ बदल गया। जहां एक ओर हमें दुख-दर्द भरी खबरें सुनने को मिलीं, वहीं दूसरी ओर राहत के समाचार भी मिले। ऐसी कहानियां जो उम्मीद जगाती हैं। रमेश पोखरियाल निशंक ने अपनी नई पुस्तक 'कोरोना काल की सच्ची कहानियां' में ऐसी कहानियों को दर्ज किया है जिनसे प्रेरणा मिलती है। समय पत्रिका के इस अंक में इस किताब की विशेष चर्चा की गई है। पोखरियाल जी के शब्दों में -'बेशक आज कोरोना ने हमसे बहुत कुछ छीन लिया है, मगर इसने महाचुनौतियों से जूझने के लिए हमें तैयार भी किया है।'
श्यौराज सिंह बेचैन का कहानी-संग्रह 'हाथ तो उग ही आते हैं' हमें सोचने पर विवश कर देता है। यह समाज पर सवाल उठाता है। बेचैन जी सवाल करते हैं,'दो सौ साल दास बनाकर रखे कालों को गोरे आज हाथ दे रहे हैं, तो सन् सैंतालीस में हुए आज़ाद देश में सवर्ण हिन्दू निर्वर्ण दलितों के हाथ काटने में क्यों लगे हैं?'
इस अंक में ऋषि राज और डॉ. रश्मि के साक्षात्कार शामिल हैं जिनमें उनकी किताबों आदि से जुड़े सवालों के जवाब पढ़ने को मिलेंगे।
वाणी प्रकाशन ने पिछले दिनों दो बेहतरीन किताबें प्रकाशित की हैं -'क्वीर विमर्श' और 'किन्नर : सेक्स और सामाजिक स्वीकार्यता'। हिंदी में इस विषय पर अच्छी पुस्तकों का अभाव है, जिसे वाणी ने पूरा करने की कोशिश की है।
अमित बगड़िया की पुस्तक 'कांग्रेस मुक्त भारत' और ममता चंद्रशेखर की पुस्तक 'स्वदेश' की भी इस अंक में चर्चा की गई है।
रमेश पोखरियाल की दो अन्य पुस्तकों 'नम्रता' और 'एम्स में एक जंग लड़ते हुए' के बारे में भी आप पढ़ेंगे। साथ में नई किताबों की चर्चा।
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