वाणी प्रकाशन ग्रुप से 'आज के प्रश्न' श्रृंखला के अन्तर्गत प्रकाशित वरिष्ठ पत्रकार एवं समाजशास्त्री अरुण कुमार त्रिपाठी द्वारा सम्पादित पुस्तक ‘संकट में खेती : आन्दोलन पर किसान’ का लोकार्पण 14 मई 2022, शाम 6:00 बजे, गाँधी शान्ति प्रतिष्ठान नयी दिल्ली में किया जायेगा।
कार्यक्रम में मुख्य अतिथि प्रसिद्ध किसान नेता और संयुक्त किसान मोर्चा के समन्वयक डॉ. दर्शन पाल, अध्यक्षता प्रसिद्ध समाजशास्त्री, प्रोफ़ेसर अम्बेडकर विश्वविद्यालय, दिल्ली, अभय कुमार दुबे, विशिष्ट अतिथि किसान नेता, भारतीय किसान यूनियन, राकेश टिकैत, श्रृंखला के सम्पादक अरुण कुमार त्रिपाठी और वाणी प्रकाशन ग्रुप के प्रबन्ध निदेशक अरुण माहेश्वरी की उपस्थिति होगी।
कार्यक्रम का संचालन वाणी प्रकाशन की कार्यकारी निदेशक अदिति माहेश्वरी-गोयल द्वारा किया जायेगा।
पुस्तक के बारे में :
भारत में साल भर तक चले किसान आन्दोलन ने देश और दुनिया को इस बात का अहसास करा दिया कि कृषि संकट गम्भीर है। दुनिया का कॉर्पोरेट जगत जितना धन आर्थिक साक्षरता पर ख़र्च कर रहा है उतना ही धन उसे खेती को समझने पर ख़र्च करना चाहिए। यह कहना आसान है कि किसान नयी प्रौद्योगिकी और सुधार को नहीं समझते लेकिन उसी के साथ यह भी सच है कि बड़े शहरों में बैठकर क़ानून और योजनाएँ बनाने वाले देश के गाँवों को नहीं समझते। अगर समझते होते तो इतना बड़ा आन्दोलन न होता। किसानों का ग़ुस्सा इसलिए फूटा क्योंकि बड़ी पूँजी सरकार के साथ मिलकर खेती को अपने ढंग से सुधारना चाह रही थी। उसने उन लोगों से पूछा ही नहीं जिनके हाथ में खेती है और जिन्हें आज़ाद करने का दावा किया जा रहा था। यानी ऐसी आज़ादी दी जा रही थी जिसे वे लोग लेने को तैयार ही नहीं थे जिन्हें वह दी जा रही थी। खेती में सुधार की ज़रूरत है, लेकिन वह सुधार न तो किसानों से ज़मीनें लेकर किया जा सकेगा और न ही भारी मशीनों, महँगे बीजों, उर्वरकों और कीटनाशक वाली हरित क्रान्ति के तर्ज़ पर होना चाहिए। खेती की भारी लागत और उससे होने वाले उत्पादन का उचित मूल्य न मिलने के कारण किसान क़र्ज़दार बनते हैं और आत्महत्या करते हैं। दूसरी ओर तरह-तरह के रसायनों का घोल पीकर धरती बीमार होती जा रही है और वह अपनी कोख में जिस जीवन को धारण करती है वह भी रुग्ण हो रहा है। यही वजह है कि कृषि क़ानूनों के ख़िलाफ़ ग़ुस्सा उन राज्यों से फूटा जो हरित क्रान्ति के केन्द्र रहे हैं और जहाँ के किसानों को बहुत आधुनिक माना जाता है।
लेकिन खेती सिर्फ़ भारत ही नहीं दुनिया के विभिन्न हिस्सों में संकट में है। कोई भी ऐसा देश नहीं है जहाँ भारी सरकारी सब्सिडी दिये बिना खेती को चला पाना सम्भव हो। खेती के बारे में डब्ल्यूटीओ की नीति में बहुत सारे दोष हैं यह बात भी इस आन्दोलन से साबित हुई है। इसलिए यह सोच लेना कि खेती पर निर्भर देश की 50 से 60 फ़ीसदी आबादी को किसी और क्षेत्र में आसानी से शिफ्ट किया जा सकेगा एक अव्यावहारिक विचार है। भारत जैसे देश में सन् 2050 तक की जो भविष्यवाणी है वह बताती है कि आबादी का कम-से-कम 50 प्रतिशत हिस्सा गाँवों और खेती पर निर्भर रहेगा। यानी किसान जैसी श्रेणी अभी लम्बे समय तक मानव सभ्यता में रहेगी और उसे एकदम से समाप्त करने का कोई औचित्य नहीं बनता। पिछले दो सालों में श्रमिक और कारीगर जिस तरह से कोरोना के लॉकडाउन में शहरों से गाँवों की ओर पलायन करने निकले उससे तो कम-से-कम हमें गाँवों की शक्ति और आश्रय की क्षमता को समझ लेना चाहिए था, लेकिन गाँव तभी सक्षम हो सकेंगे जब खेती के उत्पादों के लिए एमएसपी सुनिश्चित की जाये और खेती पर देश में न्यूनतम आय की भी गारंटी हो। फ़िलहाल तीन क़ानूनों को वापस कराकर किसान आन्दोलन स्थगित हो गया है। सरकार ने भी आख़िरकार किसानों की शहादत और उनके संघर्ष का सम्मान करते हुए क़ानूनों को वापस लेने का बड़ा दिल दिखाया है, लेकिन खेती का संकट न तो इन तीन क़ानूनों से आया था और न ही उनके हटने से जाने वाला है। अगर खेती के संकट को मिटाना है तो सरकार और किसानों के बीच निरन्तर संवाद होना चाहिए और दोनों को नये विकल्पों पर सोचना चाहिए।
सम्पादक परिचय :
पत्रकार लेखक और शिक्षक। जनसत्ता, इंडियन एक्सप्रेस और हिन्दुस्तान में ढाई दशक तक पत्रकारिता। महात्मा गाँधी अन्तरराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय, वर्धा और माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता विश्वविद्यालय में प्रोफ़ेसर एडजंक्ट के रूप में सेवाएँ। महाश्वेता देवी के साथ हिन्दी वर्तिका का सहसम्पादन। आज के प्रश्न श्रृंखला में नियमित लेखन। कट्टरता के दौर में, समाजवाद लोहिया और धर्मनिरपेक्षता, मेधा पाटकर, कल्याण सिंह, अग्निपरीक्षा जैसी पुस्तकों का लेखन और सिंगुर नंदीग्राम के सवाल, खाद्य संकट की चुनौती, परमाणु करार के ख़तरे, माओवादी या आदिवासी, अन्ना आन्दोलन और भ्रष्टाचार, राष्ट्रवाद, देशभक्ति और देशद्रोह, वैकल्पिक राजनीति का भविष्य, कोरोना काल जैसी एक दर्जन पुस्तकों का सह-सम्पादन। न्यूज़क्लिक, न्यूज़ 18, राजस्थान पत्रिका और जनमोर्चा में नियमित स्तम्भ लेखन।